गुरुवार, 10 मार्च 2011

साझा सरकारों के मानदंड बनें



कोलेशन सरकार के मानदंड तय हों

प्रभात शुंगलू
टू जी स्पैक्ट्रम घोटाले की जांच कर रही सीबीआई अब कनिमुड़ी को लेकर पसोपेश में है। ऩए और बदलते हालात में क्या सीबीआई तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करूणानिधि की बेटी को उसके सामने पेश होने के लिए फौरी तौर पर सम्मन भेजे या यूं ही कुछ क्लैरिफिकेशन के लिए बुलवा ले। सीबीआई को 15 मार्च तक सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट सौंपनी है कि आखिर शाहिद बलवा की कंपनी डी बी रिएलटी ने किस तरह 214 करोड़ कलाईनार टीवी ( जिसकी 80 फीसदी पार्टनर कनिमुड़ी और उनकी मां और करूणानिधि की पत्नी दयालु अम्माल हैं ) को ट्रांसफर किये। ये 214 करोड़ भी उसी स्पैक्ट्रम घोटाले का हिस्सा है जिसके चलते पूर्व टेलिकॉम मंत्री और डीएमके सांसद ए राजा फिलहाल जेल में हैं।

पिछले हफ्ते तक कांग्रेस और डीएमके में इस मुद्दे पर तनाव ज़रूर था लेकिन ये कांग्रेस ने भी नहीं सोचा था कि डीएमके सरकार से अलग होने का फैसला कर लेगी। ज़ाहिर है चुनाव से पहले अगर परिवार के किसी सदस्य के घर या ऑफिस में सीबीआई की रेड पड़ती है तो उससे पार्टी की साख और किसी हद तक नतीजों पर भी असर पड़ सकता था। मन मुटाव और उसके बाद मान मुनव्वल का दौर चार तीन दिन चला। फिर कुम्भ मेले में बिछड़े भाइयों की तरह दोनों पार्टियां दोबारा साथ आ गईं और यही नहीं साथ चुनाव लड़ने के लिए डील भी साइन कर ली। कॉंग्रेस को 63 सीट मिल गई जो वो चाहती थी। क्या डीएमके को भी वो मिल गया जिसके लिए उसने ये नाटक रचा। सीबीआई के ताज़ा रवैये को देख कर लगता है करूणानिधि हार कर भी जीत गए। और कांग्रेस के लिए वो मुहावरा सच साबित हुआ कि हींग लगे न फिटकरी रंग चोखे का चोखा।

ये बात सही है कि यूपीए सरकार में डीएमके की साझेदारी से सरकार को शर्मसार होना पड़ा। हालांकि इसकी ज़िम्मेदारी से खुद प्रधानमंत्री भी नहीं बच सकते लेकिन सवाल घूम-फिर कर वहीं पहुंचता है कि क्या साझा सरकारें चलाने का कोई मानदंड होगा या नहीं। क्या ये साझेदारी की डील साइन करने से पहले ही अनकहे शब्दों में तय हो जाता है कि एक हाथ ले, एक हाथ दे। किसी भी बिज़नेस मॉडल का यही मानदंड होता है क्योंकि कोई भी वेन्चर नुकसान में तो नहीं चल सकता। लेकिन क्या साझा सरकारें कोई बिज़नेस वेन्चर है। जिसके नफे-नुकसान में सब की हिस्सेदारी तय है। यानि वो एक दूसरे की कारगुज़ारियों और भ्रष्टाचार या दूसरे अपराधों पर पर्दा डालेंगी। साझा सरकारों की इस व्हीलिंग-डीलिंग में क्या समाज और देश की स्मिता दांव पर नहीं है। क्या कामयाब सरकार चलाने का इकलौता मॉडल यही है।

कांग्रेस ने डीएमके के साथ डील कर के ये तो जता दिया कि डीएमके के बिना वो भी अधूरी है और तमिलनाडु में डीएमके की बैसाखी के बिना पार्टी शून्य है। कांग्रेस ही क्यों इससे पहले की एनडीए सरकार में भी बीजेपी को तमिलनाडु में पैर जमाने के लिए जयललिता की एआईएडीएमके का सहारा लेना पड़ा। जयललिता ने भी एनडीए सरकार को नाकों चने चबवा दिए। उनके खिलाफ भी तब भ्रष्टाचार के कई आरोप थे। जयललिता ही क्यों वाजपेयी सरकार तमाम राज्यों की बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों की ऐसी 24 पार्टियों का कोलेशन थी। आज सोनिया गांधी भले ही फ्रंट फुट पर खेल रहीं हों लेकिन 1996-98 की संयुक्त मोर्चे की सरकार में वो थर्ड अंपायर और मैच रेफरी की भूमिका में थी। कांग्रेस सरकार में नहीं थी मगर मुद्दों पर संयुक्त मोर्चे की सरकार को आउटसाइड सपोर्ट दिया था। फिर एक दिन कांग्रेस के लिए मुद्दा देवेगौड़ा बन गए। फिर क्या था देवेगौड़ा को 11 महीने में ही प्रधानमंत्री की गद्दी छोड़नी पड़ी। और अगले 11 महीने में गुजराल को। कांग्रेस को दोबारा सत्ता में लौटने की कुलबुलाहट शुरू हो गई थी। देश दो साल के भीतर ही दूसरे चुनाव के मुहाने पर आ खड़ा हुआ।

पिछले लगभग 15 सालों की कोलेशन इतिहास का कुल निचोड़ ये है कि दरअसल साझा सरकारें एक ठगी का प्लेटफॉर्म बन कर रह गईं हैं। कभी कोई भ्रष्टाचार करके ठगता है तो कोई सीट की ऐवज़ में चार आने ज़्यादा मांग कर। कोई अपराध कर के बचने के रास्ते ढूंढ़ लेता है तो कोई साझा अपराध में शामिल होकर चुप्पी की खाता है। साझा मंच बना कर और एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम के बल पर भले ही पार्टियां लोगों के बीच वोट मांगे मगर सरकार में आते ही अपनी जेबें भरना और कानून को ठेंगा दिखाना – इन दो सूत्रीय मंत्र के इर्द-गिर्द ही ये अपना न्यूनतम साझा कार्यक्रम बुन लेते हैं। सही मायनों में न्यूनतम कुछ नहीं बचता। बस भ्रष्टाचार साझा हो जाता है।

दूसरी पार्टियों के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का दो ही मकसद होता है - होने वाले चुनावी नुकसान को कम किया जा सके या जीत को और पक्का किया जा सके। जीत का मतलब सत्ता। और सत्ता का मतलब मनमानी हुकूमत। यानि मूल्यों के साथ कॉम्प्रोमाइज़। अब ये बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी ज़ुबान पर कैसे लाते इसलिए कोलेशन के सर ठीकरा फोड़ कर भ्रष्टाचार के सवालों से कन्नी काट गए। और सत्ता में बने रहने का नया बहाना ढूंढ़ लिया।

डीएमके प्रकरण के दौरान सोनिया गांधी ने कहा था – हम सीट के लिए लालायित नहीं। डीएमके के रवैये ने कांग्रेस पार्टी की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाई है। जिस आम आदमी ने मूल्यों पर आधारित पारदर्शी, करप्शन-फ्री और न्यायसंगत सरकार चलाने के लिए यूपीए के मंच को चुना उसकी प्रतिष्ठा को क्या हल्के में लिया जा सकता है।

डीएमके से रिश्ते तोड़ने का एक अवसर कांग्रेस के पास था। भले ही सरकार क्यों न दांव पर होती। लेकिन सीट शेयरिंग की डील साइन कर कांग्रेस ने जता दिया कि प्रतिष्ठा से पहले अस्तित्व की लड़ाई भी तो लड़नी है। जब अस्तित्व ही खतरे में होगा तो किसकी प्रतिष्ठा की बात करके किसे बर्गलाया जा सकेगा। 

गुरुवार, 3 मार्च 2011

दूसरी आज़ादी का समय


दूसरी आज़ादी का समय 

प्रभात शुंगलू

लोकशाही के साथ इससे बड़ा मज़ाक नहीं हो सकता कि भ्रष्टाचार के आरोप में चार्जशीटेड एक उच्च अधिकारी को भ्रष्टाचार निरोधक कमीशन की बागडोर थमा दी जाए। लेकिन विवादित पूर्व सीवीसी पी जे थॉमस को कुछ ऐसी ही परिश्थितियों में नियुक्त किया गया और यही नहीं जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो केन्द्र सरकार थॉमस की ही पैरवी करती दिखी। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट नें सीवीसी के पद पर थॉमस की नियुक्ति को रद्द करार देकर भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में जनता की आस्था को ज़िंदा रखा है। 

ब्योरोक्रेसी में भ्रष्टाचार को लेकर सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला एक नज़ीर बन सकता है। लेकिन भ्रष्टाचार के कैंसर को खत्म करने की जंग यहां खत्म नहीं बल्कि शुरू होती है। अब एक और मिसाल लीजिए। सालों से लटके उच्च पदों पर व्याप्त भ्रष्टाचार निरोधक लोकपाल बिल को भी वहीं राजनेता और अधिकारी वर्ग ड्राफ्ट कर रहा जिनपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। सरकार की सिफारिश मानें तो जिसकी लाठी उसकी भैंस के तर्ज पर लोकपाल और राज्यों में लोकआयुक्तों की नियुक्ति भी राजनेता ही करेंगे। लोकतंत्र के साथ एक और भद्दा मज़ाक।

इसलिए लोकपाल बिल को लेकर मशहूर समाजसेवी अन्ना हज़ारे ने 5 अप्रैल से दिल्ली के जंतर मंतर पर बेमियादी भूख हड़ताल करने की ठान ली है। ये स्वतंत्रता आंदोलन की दूसरी लड़ाई है। मैं शहादत के लिए भी तैयार हूं। ये कहते हुए अन्ना ने देशवासियों से उनकी इस मुहिम में साथ देने की अपील की।

अन्ना हज़ारे, अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी और स्वामी अग्निवेश ने सिविल सोसाइटी की मदद से एक वैकल्पिक लोकपाल बिल बनाया है। इसे उन्होने जन लोकपाल बिल का नाम दिया है। इसमें उन्होने लोकपाल संस्था को स्वतंत्र संस्था के रूप में बनाए जाने की सिफारिश की है। जिसमें सीबीआई और सीवीसी के अधिकारों को भी लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में लाए जाने की सिफारिश है। ये संस्था एक समय सीमा के भीतर भ्रष्टाचार के मामले की जांच पूरी करेगी और उसपर सुनवाई कर के दोषियों को सज़ा देगी। इस तरह के कई महत्वपूर्ण संशोधनों के साथ इस बिल की रूपरेखा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भेजी जा चुकी है। लेकिन प्रधानमंत्री की चुप्पी अन्ना को महात्मा गांधी की तर्ज पर जन आंदोलन छेड़ने को मजबूर कर रही।

1937 की पहली अंतरिम सरकार में कॉग्रेसियों के भ्रष्टाचार से गांधी इतना उकता गए कि उन्हे कहना पड़ा कि मेरा बस चले तो मैं पार्टी को हमेशा के लिए दफना दूं ताकि न रहे बांस न बजे बांसुरी। आज़ादी के बाद भी भ्रष्टाचार का ये सिलसिला रूका नहीं। सरकारी तंत्र को चुस्त दुरूस्त बनाने के लिए गोरवाला कमेटी का 1950 में गठन हुआ। सरकारी भ्रष्टाचार को लेकर उन्होने जो अपनी रिपोर्ट में कहा वो दिलचस्प है। नेहरू के कुछ साथी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। और ये सबको पता है। इतना ही नहीं बल्कि एक अफसर ने पूछे जाने पर ये भी बताया कि सरकार ऐसे भ्रष्ट मंत्रियों को बचाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती। साठ के दशक में संथानम कमेटी ने लगभग ऐलान कर दिया कि लोकतंत्र की तरह भ्रष्टाचार भी इस देश में अपनी जड़ें जमा चुका है। संथानम कमेटी ने कहा अब ये आम धारणा बन चुकी है कि मंत्रियों से सत्यनिष्ठा और ईमानदारी की उम्मीद रखना छलावा है। पिछले सोलह सालों से जो मंत्री बने हुए हैं उन्होने भ्रष्टाचार के रास्ते अपने और अपने परिवार के लिए सारी सुख सुविधाओं और अच्छी नौकरियों का इंतज़ाम कर लिया है। जो लोग पब्लिक लाइफ में शुचिता की बात करते हैं उन्हे ऐसे मंत्री मुंह चिढ़ाते हैं।

जितने ठोस इन कमेटियों के सुझाव होते उतने ही पुरज़ोर तरीके से भ्रष्टाचार कुलांचे भरता किसी न किसी भी नेता, मंत्री या मुख्यमंत्री के पिटारे से बाहर निकलता और लोकतांत्रिक व्यवस्था को मुंह चिढ़ाता। इसलिए कृष्णा मेनन का जीप स्कैंडल हो या पंजाब के पहले मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप। टीटी कृष्णमाचारी, बोफोर्स, फेयरफैक्स, जेएमएम घूस कांड, हवाला कांड, जयललिता, लालू यादव और सुखराम के रास्ते ये फिलहाल राडिया, राजा, रेड्डी ब्रदर्स और येदुरप्पा पर आकर थमा नहीं है। बदलें है तो बस चेहरे और कॉर्पोरेट और राजनीति की अंदरूनी कैमेस्ट्री। और भ्रष्टाचार की राशि में कई सिफर और जुड़ गए हैं।

लेकिन वो मिलियन डॉलर सवाल जस का तस खड़ा है। भ्रष्टाचार पर काबू कैसे पाया जाए। अब तो सिस्टम भी सौगात में भ्रष्ट सीवीसी ही देता है। क्या भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए बने कानून अपनी धार खो चुके हैं। या तो कानून इतने लुंज-पुंज हैं कि नेताओं और भ्रष्ट अफसरों को उसका दुरूउपयोग करना आता है। और उससे बच निकलने के नुस्खे भी। इस देश में भ्रष्टाचार के आरोप में आम आदमी हवालात पहुंचता है और नेता संसद। क्योंकि एक घूसखोर नेता के सामने कानून भी असहाय दिखता है। एक भ्रष्ट जज के खिलाफ भी बुनियादी कानूनी कार्रवाई तक में दर्जनों बाधा है। इसलिए लोकपाल बिल पर सरकार इतने सालों से कुंडली मार कर बैठी है। क्योंकि अगर लोकपाल बिल वैसा बनाया गया जैसा जनता चाहती है तब भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों को कानून की बारीकियों के साथ साथ जेल मैन्यूअल भी रटना पड़ सकता है।

लेकिन सवाल ये उठता है कि जिस फ्रंट पर गांधी कामयाब नहीं हुए क्या अन्ना हज़ारे होंगे। क्या ये देश भ्रष्टाचार को लेकर ज़ीरो टॉलरेंस ज़ोन बनेगा। अगर एक अरब के इस देश में एक फीसदी युवा भी अन्ना की मुहिम के साथ जुड़ जाते हैं तो नतीजा अच्छा ही निकलेगा। ये तो पहला पड़ाव होगा। इस उम्मीद में कि ये जीत दूसरे पुरज़ोर कानून बनाए जाने के लिए रास्ता खोलेगी। इस सपने को पूरा करने की ज़िम्मेदारी जितनी अन्ना हज़ारे की है उतनी ही शायद समाज के हर उस शख्स की जो भ्रष्ट व्यवस्था के मकड़जाल से निकलकर खुली हवा में सांस लेना चाहता है। जनता की जीत ही दूसरी आज़ादी के जश्न का समय होगा।

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

Godhra


क्या कलीमउद्दीन जैसे भी रिहा होंगे


प्रभात शुंगलू
हत्या और साजिश का ऐसा मामला जिसमें 59 जानें गईं और मुख्य आरोपी सहित दो-तिहाई आरोपी बरी हो गए। गोधरा कांड मामले में अतिरिक्त सेशन जज के फैसले से एक बात तो बिल्कुल साफ हो गई कि गुजरात सरकार और प्रशासन नें बेगुनाह लोगों को झूठे मुकद्दमें गढ़ कर इस केस में फंसाया। जिस बात से पर्दा उठना अभी बाकी है वो ये कि अगर किसी साजिश के तहत साबरमती एक्सप्रेस की कोच एस 6 को जलाया गया जिसकी वजह से अयोध्या से लौट रहे 59 श्रद्धालू मारे गए तो ये साजिश क्यों और किसके इशारे पर रची गई।

इस मामले में 25 फरवरी को कोर्ट 31 दोषियों को सज़ा सुनाएगा और तभी इस बात का भी खुलासा हो पाएगा कि एस 6 बोगी को जलाने के पीछे साजिश ही थी अदालत इस नतीजे पर कैसे पहुंची। ये खुलासा ज्यादा महत्वपूर्ण होगा कि आखिर ये साजिश किन कारणों से रची गई। क्या इस साजिश के तार किसी घटना विशेष से जुड़ते हैं। या इतिहास के किसी गुज़रे सफे को छूते हैं। इस साजिश के पीछे भी कोई साजिश थी। और थी तो वो क्या थी। आखिर कुछ लोगों नें अचानक ट्रेन की एक बोगी जलाने का इरादा क्यों ठान लिया। इन पहलुओं पर अदालत की बात तफ्सील से उसी दिन जान पाएंगे। लेकिन सवाल ये उठता है इस सिस्टम का बुना और गढ़ा ये कैसा क्रिमिनल ज्यूरिसप्रूडेन्स ढांचा है जिसमें एक बेगुनाह को इंसाफ मिलने की शर्त ये है कि उसे नौ साल जेल में गुज़ारने पड़ेंगे।

तो क्या इसे इंसाफ की जीत मानना चाहिए कि नौ साल बाद मुख्य आरोपी मौलाना उमरजी और उनके जैसे 62 अन्य बेगुनाहों को आखिरकार अदालत ने बेगुनाह बताया। लेकिन मौलाना उमरजी ने तो नौ साल जेल में ऐसे काटे मानो कसूरवार वही था। हत्यारा वही था। साजिश उसी ने रची थी। 59 लोगों की जान का ज़िम्मेदार वही था। मौलवी उमरजी का बेटा सईद सुबह अदालत का फैसला सुनने के बाद फोन पर प्रेस से बात करते करते खुशी के मारे रो पड़ा। उसके ये आंसू रात में टीवी चैनलों के प्राइम टाइम में भी नहीं थम रहे थे। बस प्राइम टाइम के आंसू एक सवाल पूछ रहे थे। आखिर मेरे वालिद की बेगुनाही और उनके उन नौ साल का खामियाज़ा कौन देगा। किस किस को जवाब देंगे कि अदालत में उनके खिलाफ आरोप पत्र तय हुए थे। बिना ट्रायल के वो बेगुनाह नहीं साबित दिये गए।

सवाल ये भी उठता है कि क्या देश का सिस्टम पूर्व टेलीकॉम मंत्री राजा के साथ भी मौलवी उमरजी जैसा सलूक कर पाने की गुस्ताखी कर पाएगा। क्या 2 जी स्पैक्ट्रम जैसे मदर ऑफ ऑल करप्शन मामले में अदालती कार्यवाही पूरी होने तक और इसपर फैसला आने तक ए राजा दिल्ली के तिहाड़ जेल में ही रहेंगे। जवाब होगा – कभी नहीं। क्या इसकी कल्पना की जा सकती है कि भ्रष्टाचार या भयानक क्रिमिनल टाइप के मामले में कोई नेता, मंत्री या पूर्व मंत्री बिना दोषी साबित हुए इतने साल जेल में बिता दे। चारा घोटाला में लालू यादव जेल आते-जाते रहे मगर वहां कभी टिके नहीं। पिछले साल वो बरी हुए। बिना दोषी पाए गए 14 साल जेल में ही रहते तो क्या केन्द्र में मंत्री बन पाते। यानि इस देश में मौलवी उमरजी और उनके जैसे दूसरे बेगुनाह लोगों के लिए एक कानून है और राजा और लालू यादव जैसे नेताओं के लिए दूसरा कानून।

मगर सच यही है। इस देश में नेता का वजूद ही पूरे सिस्टम को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने के लिए हैं। जैसे लालू यादव ने बतौर रेल मंत्री गोधरा कांड की जांच करवाई। हाई कोर्ट के पूर्व न्यायधीश यू सी बनर्जी ने अपनी जांच रिपोर्ट में साजिश के ऐंगेल को पूरी तरह से खारिज करते हुए बोगी में आग लगने को एक्सीडेंट करार दिया। यही लालू यादव चाहते थे। इस जांच रिपोर्ट के ज़रिये वो बिहार चुनाव में मुसलमानों के मसीहा होने का तमगा पूरी तरह से सुरक्षित कर लेना चाहते थे। उसी तरह जैसे 27 फरवरी 2002 की सुबह नए ऩए मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के मन में हिन्दु ह्द्य सम्राट बनने का जुनून सवार हुआ।

सवाल अब उनसठ लोगों की निर्मम हत्या का नहीं। सवाल उन 1200 लोगों का है जिन्हे अगले तीन दिन में दंगों में अपनी जान गंवानी पड़ी। अगर गोधरा कांड साजिश थी तो उसके बाद भड़के दंगे क्या किसी साजिश का हिस्सा नहीं था। तो क्या मौलवी उमरजी और उनके जैसे बेगुनाह लोगों को फंसाने के पीछे राज्य प्रशासन को कोई हिडेन एजेंडा था। क्या उस हिडेन एजेंडे के ज़रिये राज्य सरकार कुछ जवाबों के सवाल खड़े कर रही थी। अगर एस 6 कोच जलाना साजिश थी तो क्या उसके बाद का कम्यूनल भूकंप भी किसी साजिश का हिस्सा था। एस 6 को जलाने की साजिश के पीछे जो लोग थे उनके नाम और पहचान अब सामनें आ चुकी है। दंगों की साजिश के रचयिता कौन लोग थे ये नाम भी अब किसी से छुपे नहीं। ये साजिश ज्यादा घातक थी क्योंकि इसमें आंखों के सामने तीन दिन तक नरसंहार हुआ और प्रशासन आंखों पर पट्टी डाल कर तमाशा देखता रहा।

गुजरात से बाहर, मालेगांव धमाके में भी कितने बेगुनाह इंसाफ की आस लगाए जेल में बंद हैं। क्या सबूत है कि उनपर भी पाकिस्तान से आतंकवादी ट्रेनिंग लेने का आरोप गढ़ा नहीं गया होगा। क्या सरकारी तंत्र पर ये शक करना निराधार होगा कि उन आरोपियों के पास से हथियारों की जो बरामदगी दिखाई गई वही असलियत थी। क्या मालेगांव ब्लास्ट में पकड़े गए असीमानंद के बयानों के बाद भी युवा कलीमउद्दीन जैसे लोगों की बेगुनाही के बारे में कहने को कुछ रह जाता है। मगर सवाल यही है कि सिस्टम में उमरजी और कलीमउद्दीन जैसे लोग हमेशा हाशिये पर क्यों रहते हैं।

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

लंगड़ी सत्ता का राजधर्म


एक लंगड़ी सत्ता का राजधर्म

प्रभात शुंगलू
गोधरा दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मुख्यमंत्री मोदी को राजधर्म का पाठ पढ़ाया। गुजरात जाकर मोदी का इस्तीफा लेकर लौटते तो उनका भी राजधर्म समझ में आता। गठबंधन का नेतृत्व कर रहे थे इसलिए उनसे भी उम्मीदें थीं। बहरहाल, समय बदला, काल बदला और नेतृत्व के साथ सूरत और सीरत भी बदली। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अब यही सवाल जनता मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर दाग रही – राजधर्म निभाओ और इस्तीफा दो। मनमोहन सिंह कह रहे – क्यों दूं।

तब वाजपेयी के हाथ आडवाणी, संघ और पार्टी के गर्म दल के दूसरे सदस्यों नें बांध रखे थे इसलिए वो मोदी से इस्तीफा नहीं ले पाए। मनमोहन सिंह के हाथ 10 जनपथ नें बांध रखे हैं। जो मनमोहन सिंह से इस्तीफा ले नहीं सकती। न्यूज़ चैनलों के संपादकों के साथ प्रेस वार्ता में मनमोहन सिंह ने ये साफ कर दिया कि वो कुर्सी नहीं छोड़ेंगे बल्कि अपना दूसरा कार्यकाल भी पूरा करेंगे। यानि कुल मिला कर उस प्रेस वार्ता से ये न्यूज़ छन कर आई कि राजकुमार राहुल राजतिलक के लिए फिलहाल तैयार नहीं हैं।

मनमोहन सिंह से सवाल बड़ा साफ था। क्या वो ऐसे बड़े भ्रष्टाचार की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हैं। नैतिक ज़िम्मेदारी तो दूर प्रधानमंत्री तो मुस्कुरा कर ये कह गए कि मीडिया उनको जबरन दोषी ठहराने की कोशिश कर रहा। वह दरअसल उतने बड़े दोषी हैं नहीं। हांलाकि उन्होने इस बात का खुलासा नहीं किया कि खुद को दोषी साबित किये जाने का क्या मापदंड उन्होने स्वयं तय किया है। अब किसको किस लेवल के दोषी पाए जाने पर कितनी सज़ा सुनाई जाए ये भी जनता की अदालत में तय नहीं होगा। मनमोहन सिंह जिस भी लेवल के दोषी हों अगले 40 महीने के बचे कार्यकाल को पूरा करने का हक उनसे कोई नहीं छीन सकता। इस कैवियेट के साथ अब जनता को भी जीना होगा। शायद लेम-डकसत्ता का राजधर्म यही है। वाजपेयी गोधरा दंगों के बाद भी मोदी के साथ बने रहे और मनमोहन सिंह ने भी अपना दूसरा कार्यकाल पूरा करने की शपथ ली।

सात साल की प्रधानमंत्रीगिरी नें मनमोहन सिंह को इन्फ्लेशन और भ्रष्टाचार पर काबू पाने के गुर भले न सिखाए हों उन्हे शब्दों के महीन जाल बुनना ज़रूर सिखा दिया। प्रेस वार्ता में भ्रष्टाचार की बात और बढ़ी तो झट पल्ला सहयोगी दलों पर झाड़ दिया। गठबंधन सरकार चलानी है इसलिए थोड़ा-बहुत भ्रष्टाचार तो नज़रअंदाज़ करना पड़ेगा। बस यही कोई पचास-साठ हज़ार करोड़ का। इतना तो उनकी सरकार गरीबों को अनाज और खाद में सब्सिडी के रूप में दे देती है। इसको 2जी स्पैक्ट्रम लाइसेंस सब्सिडि मान लिया जाए। बहरहाल, ये तो रहा सहयोगियों के भ्रष्टाचार का दायरा। गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी का भी दायरा तय हो चुका है। एक साथ तीन-चार भ्रष्टाचार के आरोप लगने चाहिये। और उन भ्रष्टाचार के मामलों का स्तर भी सीडब्लूजी स्कैम, आदर्श घोटाला और इसरो एस बैंड स्कैम कुछ इस गरिमा का हो जिसमें प्रधानमंत्री कार्यालय पर भी उंगली उठाई गई हो तो उस पर बहस करने में इंडिया ऑन द मूव जैसी फीलींग आएगी।

मनमोहन सिंह कतई नहीं चाहते कि गठबंधन टूटे। ऐसा हुआ तो समय से पहले इलेक्शन होगा। उसमें भी हज़ारों करोड़ ज़ाया होंगे। इसलिए भ्रष्टाचार से समझौता कर लिया। समझौता या भ्रष्टाचार के आगे समर्पण। इसे समझने के लिए किसी पीएचडी की ज़रुरत नहीं। लेकिन गठबंधन सरकार चलाने के लिए सहयोगियो और कांग्रेसी भ्रष्टाचार का इतना खूबसूरत बैलेन्स बनाए रखने वाले डॉक्टर मनमोहन सिंह एक और डॉक्टरेट के हकदार ज़रूर हो गए हैं।  

ऐसा नहीं है कि कि डॉक्टर मनमोहन सिंह ने भ्रष्टाचार का इलाज नहीं ढूंढ़ा है। एक तो यह कि अब वो तीसरी बार ए राजा को मंत्रिमंडल में शामिल करने की गुस्ताखी नहीं करेंगे। वो ए राजा की ही तरह करूणानिधी के दूसरे वफादार को मंत्रिमंडल में लाएंगे। दूसरा यह कि जल्द ही वो मंत्रिमंडल फेरबदल करेंगे। बस भ्रष्टाचार उड़न छू हो जाएगा। लोकपाल बिल कब लाएंगे पता नहीं, स्टेट फंडिग और लॉ कमीशन के सुझाव संबंधित चुनाव सुधार बिल कब लाएंगे पता नहीं। पूछा गया कि नेताओं और मंत्रियों के भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के लिए डिस्क्रीशनरी कोटा काटने या कम करने का क्या पैमाना होगा इसपर भी चुप। कुल मिलाकर लगा नहीं जो सरकार इतने सारे सवालों और विवादों में घिरी हो उसका मुखिया अपने प्रेस पब्लिसिटी स्टंट में भी ग्रेस मार्कस से पास होगा, ये अलग बात है कि डॉक्टर मनमोहन सिंह खुद को दस में से सात अंक देने से नहीं चूके। ये साफ नहीं हुआ कि ये नंबर उन्होने यूपीए सरकार के अब तक के स्कैम की गिनती को ध्यान में रखकर दिए। या जो तीन नंबर काटे वो यूपीए 2 के बचे तीन सालों में आने वाले स्कैम के मद्देनज़र।

स्पैनिश के मशहूर लेखक गाब्रिएल गार्सिया मार्केज़ की एक नॉवेल काफी चर्चित रही। क्रोनिकल ऑफ ए डेथ फोरटोल्ड। यानि वो मौत जिसकी कहानी पहले ही लिखी जा चुकी हो। ये एक युवक सांतिआगो नसर की हत्या की कहानी है। कैसे पूरे शहर को इस हत्या का पता होता है पर फिर भी सांतिआगो को ढूंढ़ कर कोई उसे आगाह नहीं करता कि दो भाई उसे मारने आ रहे। गरीबी, भुखमरी और आसमान छूती कीमतों से त्रस्त सांतिआगो नसर रूपी जनता रोज़ मारी जा रही। लेकिन इस हत्या से जनता को बचाने वाला कोई नहीं। न ही वो सिस्टम जिसे उसकी सुरक्षा की गारंटी लेनी चाहिये थी क्योंकि उस सिस्टम को भ्रष्टाचार की दीमक ने खोखला कर दिया है। और न ही वो नेता जो कहने को जनता का नुमाइंदा है पर अब व्यापारी बन चुका है जिसके इंटर्नेशन्ल बैंक खातों में लाखों डॉलर काला धन जमा है। मार्केज़ की कहानी की पृष्ठभूमि लातिनी देश से हिंदुस्तान के किसी कोने में कॉपी-पेस्ट करने की ज़रूरत है, बस। टाइटिल भी झाड़-पोंछ कर फिट बैठेगा। क्रोनिकल ऑफ ए स्कैम फोरटोल्ड। इसके संपादक मार्केज़ नहीं डॉक्टर मनमोहन सिंह होंगे। 

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

Walk like an Egyptian


Walk Like an Egyptian


Prabhat Shunglu

Forty days before anti-Mubarak slogans rented the air at Cairo’s Tahrir Square on January 25, India’s Supreme Court passed a stricture against a Cabinet Minister in the ruling UPA government. The court slammed Mr Vilasrao Deshmukh for abusing his power as Maharashtra Chief Minister by shielding a party MLA, doubling as dubious money lender and accused of squeezing debt-ridden Vidarbha farmers dry, against criminal action.

Six days before the Cairo uprising the Indian government rewarded Mr Deshmukh’s loyalty for the Congress party by shifting him from Heavy Industries ministry to Rural Development Ministry, seen as an upgrade because the ministry is close to the heart of mother Sonia Gandhi and son Rahul  both. During his tenure as chief minister ( 2004 -08 ) Mr Deshmukh logged a dubious distinction of straddling over maximum suicide deaths of farmers in the Vidarbha region.

Autocratic regimes of Hosni Mubarak and his erstwhile Tunisian counterpart Zine El Abidine were accused of squandering the nation’s wealth for personal gains and holding public welfare to ransom. The public in both countries were fed up with escalating inflation and spiraling corruption. A vegetable vendor suicide by self-immolation was the trigger for uprising against Abdeen in Tunisia, it was the social networking sites like the facebook that mobilized people against Hosni Mubarak on the streets of Egypt. Jasmine revolution provoked immediate results back in Tunisia as Abidine fled the country even as Tahrir square holds hope for a spectacular change in that land of the pharaohs and wondrous pyramids.

In an era where social networking sites are becoming platforms for cataclysmic change brought in not by the incumbent administrative regimes but by the might and ingenuity of a people wronged by the system, it is hard to imagine that in India a near lull ( or is it the proverbial lull before the storm ) has enveloped those upon whom the idea of a colour revolution is most desired. Not even the students who mobilized against corruption in 1974 against the then Congress regime before allowing themselves to be led by septuagenarian Gandhian Jai Prakash Narayan to participate in his call for total revolution.

Consider this: The per capita gross domestic product in Egypt is 6,200 dollars compared to 3,400 dollars in India. Egypt’s per capita income is naturally higher at 130 dollars. According to the latest report in CIA fact book, Egypt’s unemployment rate is 9.7 per cent whereas India’s stands at 10.8 per cent despite those clutch of Nehru-Gandhi development schemes and the much-touted NAREGA. No wonder then that 25 per cent of Indians are still poor  - now considered a low-grade euphemism for economically correct ‘those living below poverty line’ - ( That line again is an imaginary median of  economic yo-yo (ic ) fudging of  unimaginable proportion. ) compared to 20 per cent poor in Egypt.

The country’s main opposition party, the Bhartiya Janata Party, has launched a crusade against the corrupt UPA regime when its own house is leaking heavily through chinks of corruption. The Karnatata chief minister B S Yedurappa is the BJP’s mascot in southern states where it has captured power the first time. Everyone watched the graphic changeover of Yedurappa from chief minister of Karnataka to a minister –in-chief of land and mine mafias. If A Raja, former telecom minister in UPA, has been accused of under-pricing 2G airwaves sold to telecom operators and causing loss to the tune of 1.75 lakh crore, the Reddy brothers of Karnataka have duped the exchequer of more than Rs 60,000 crores.

Yedurappa himself has a soft corner for nepotism. He bent every rule in the book to get over 500 crore rupees worth of land allotted to his two sons the eldest of whom, Raghvendra, is a member of Parliament.  The opposition estimates his personal worth at more than 1000 crores.  For an elected representative and a chief minister Yedurappa’s ill-gotten gains and his ability to straddle a corrupt regime puts to shame Hosni Mubarak family’s loot. Since Yedurappa belongs to a party ‘with a difference,’ president Nitin Gadkari terms his misdemeanours as purely ‘legal’ though ‘immoral.’ In BJP’s vision immorality seems to be a perfect foil for democracy.

Just as loyalty to the dynasty serves as the veritable kick to the Congress’s vision of sustaining intra-party democracy.  Therefore a Deshmukh is put on an even higher pedestal despite Supreme Court’s rap on his knuckles. “It is sad and shocking to see how the government allows and appreciates such ministers. Not only that, it also gives them a cabinet post. It is not a dignified act and I would call it a shameless act.” These were the words of Supreme Court Justice A.K. Ganguly at a seminar in Mumbai recently.

These are but different colours of a wave of corrupt (r)evolution sweeping India. The Indian urban streets are filled with vulgar display of life borrowed on plastic money. Everyone seems to be outstripping the other in the race for pretending to be happy in an otherwise lo(a)nely life. Every alternate fortnight a new sedan or a 4x4 SUV teases readers from super front page advertorials and tempts TV viewers with smart promotionals. There is an average of five short messages delivered on mobiles by real estate agents luring prospective buyers with apartments and villas on ‘easy instalments.’ 

All this lopsided economic collage is not without its ‘most-visited’ page. The national capital, Delhi, for instance, has to come face to face with shame, with such conscience churning tags like crime\rape\scam capital of India. A poor woman delivers a child by the roadside along the most happening square in Delhi because the five-star hospitals in the vicinity only deliver life in lieu of money. And from Delhi to Mumbai not a brick is laid without the ‘ideal ( adarsh in Hindustani ) mix of gamesmanship cementing corruption.

The picture across the countryside is even more abysmal. The farmers are either in debt or committing suicides because they cannot afford to pay off those debts, their lands increasingly under threat from the evil eyes of land\real estate mafias and now, often, by a kind of mafiaso that operates in the garb of Special Economic Zones ( SEZ ) where the government itself takes the ‘supari’on behalf of moneyed class. Like that proverbial Indian bridegroom who presents himself as a commodity in the sick, old dowry bazaar before he ties the nuptial knot, everything is up for sale – from kidney to morality - waiting for its right bidder. This is corruption a la India in its throbbing, naked glory removed only in texture from Cairo style corruption which vertically split the society into haves ( all the Mubarak’s family, friends and pliable men in his fiefdom ) and have-nots ( those who converged at Tahrir Square).

A common Egyptian waged a non-violent war against the well-entrenched despotic rule of Mubarak and succeeded in his objective in less than three weeks. Wrote David Michael Green, a political science professor at New York’s Hofstra University, after the Egyption uprising: Cowardice is talking about democracy for others while actually undermining it when you don't like the results. Courage is walking like an Egyptian.

Will the average Indian, the ubiquitous aam aadmi, continue to wallow in the pool of doubtful priapismic ecstasy. Or can he ever dare to walk stiff, like an Egyptian.  

लोकतंत्र का बायोडेटा


क्या यही है लोकतंत्र का बायोडेटा

प्रभात शुंगलू

उस दिन सीवीसी यानि केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त पी जे थॉमस ने सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस की बेंच के सामने वो सवाल उठा दिया जिसका जवाब पिछली कई सरकारें ढूंढ़ने से कतरा रही हैं। सीवीसी थॉमस का सवाल साफ था – इस देश में अगर आपराधिक छवि वाले नेता, मर्डर के केस में लिप्त नेता सांसद और मंत्री बन सकते हैं तो वो सीवीसी क्यों नहीं बने रह सकते। उनके वकील के के वेनुगोपाल नें बाकायदा आंकड़े पेश किये। कहा मौजूदा संसद में भी 28 फीसदी यानि 543 में से 153 नेता ऐसे हैं जिनके खिलाफ देश की विभिन्न अदालतों में आपराधिक मुकद्दमें चल रहे हैं और इनमें से 54 सासंदों के खिलाफ तो हत्या के मुकद्दमे चल रहे। कुल मिलाकर पिछली लोकसभा में आपराधिक छवि वाले सांसदों में 17 फीसदी का इज़ाफा।

थॉमस पर आरोप है कि नब्बे के दशक में केरल में खाद्द सचिव के तौर पर उन्होने अंतर्राष्ट्रीय कीमत से 13 डॉलर ज्यादा दाम पर सिंगापुर की एक कंपनी से पामोलिन तेल खरीदा जिससे राज्य सरकार को 2.32 करोड़ रूपये का घाटा हुआ। इस मामले में अदालत में दायर सीबीआई चार्जशीट में उस समय केरल के मुख्यमंत्री के करूणाकरण से लेकर सरकार के दूसरे अफसरों के भी नाम हैं। आज यही चार्जशीट सीवीसी थॉमस के गले की हड्डी बनी हुई है। अब केन्द्र सरकार भी कटघरे में है कि ये सब जानते हुए भी प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिती ने थॉमस की नियुक्ति कैसे की। और दूसरी महत्वपूर्ण बात ये कि इस समिति के सामनें थॉमस के बायोडेटा से इस चार्जशीट का ज़िक्र गायब क्यों था। सुप्रीम कोर्ट तो दलीलों के मद्देनज़र फैसला सुनाएगा कि ऐसा अधिकारी जिसके खुद के दामन पर दाग हो उसे सीवीसी नियुक्त किया जाना सही था या गलत। लेकिन उस सवाल का क्या जो थॉमस ने सुप्रीम कोर्ट से किया।

थॉमस ने तो वो तर्क अपने बचाव में दिये। सवाल थॉमस की साख का नहीं। सवाल उस प्रजातंत्र की साख का है जिसमें हत्या जैसे जघन्य अपराध भी एक नेता के बायोडेटा का हाई प्वाइंट माना जाता है। लगभग सभी पार्टियों में जिताऊ कैन्डीडेट की इतनी कमी है कि खाऊ-कमाऊ और आपराधिक रिकॉर्ड वाले व्यक्तियों को ही टिकट थमा कर पार्टियां धन्य हो जाती हैं।

पिछले सालों में चुनाव सुधार की बयार ज़रूर चली। आपराधिक मामलों में दो साल से ज़्यादा सज़ा पाने वाले अब चुनाव नहीं लड़ सकते हैं। अब चुनावी हलफनामें में नेताओं को अपने और परिवार की चल, अचल संपत्ति का भी ब्योरा देना होता है। लेकिन उस हलफनामें की असलियत कौन जांचेगा। इसलिए होता यही है कि अकूत संपत्ति के मालिक होने के बावजूद नेताओं के चुनावी हलफनामें वोटर की अस्मिता का मज़ाक बनकर रह जाते हैं। अब कोई कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी एस येदुरप्पा से पूछेगा कि 2008 में जब वो मुख्यमंत्री बने और हाल के उनकी चल अचल संपत्ति के ब्योरे में इतना अंतर कैसे। इन तीन सालों में एक किलो सोना और कैसे बढ़ गया। उनके बैंक के खाते में 20 लाख रूपये ज्यादा कैसे आ गये। एक विधायक को अंबानी की कंपनी के सीईओ की तन्ख्वाह मिलती है क्या। सारे नियम कानून को ताक पर रख कर उन्होने अपने दो बेटों, जिनमें एक एस राघवेन्द्र सांसद है, के नाम ज़मीने लिखवा दीं जिसकी कीमत 500 करोड़ रूपये आंकी गई है। लेकिन हकीकत यही है कि येदुरप्पा और उनकी पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी ये कहते घूम रहे कि दाग अच्छे हैं।

इस लोकतांत्रिक व्यवस्था को जहां एक तरफ येदुरप्पा, कलमाडी और ए राजा जैसे घोटाला मंत्री दीमक की तरह चाट रहे वहीं दूसरी तरफ बाहुबली नेता भी फल फूल रहे। एक एनजीओ इलेक्शन वॉच के मुताबिक मौजूदा पन्द्रहवीं लोकसभा में आपराधिक छवि वाले सबसे ज्यादा सांसद – 42 सांसद - बीजेपी से हैं। इनमें से 19 सासंदों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। लेकिन कांग्रेस भी पीछे नहीं। ऐसे कांग्रेसी सांसदों की संख्या 41 है। जिनमें 12 के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले हैं। ऐसे कितनी ही पार्टियों के सांसद पन्द्रहवीं लोकसभा में बैठकर जनता को ही कानून का पाठ पढ़ा रहीं। अपराध और बाहुबल के दम पर राज करने की मानसिकता के पीछे कानून के बलात्कार की हवस ही छुपी है।

मतलब साफ है कि कॉस्मेटिक और दंतहीन बदलाव लाने से बात नहीं बनेगी। चुनाव सुधार व्यापक तौर पर हों इसके लिए पिछले सालों में चुनाव आयोग से लेकर लॉ कमीशन ऩे सरकार के पास सुझावों की लड़ी लगा दी है। एक महत्वपूर्ण सुझाव ये है कि जिस किसी के खिलाफ कोर्ट में आपराधिक मुकद्मा चल रहा हो उसे इलेक्शन न लड़ने दिया जाए जबतक कि वो उस मामले में बरी न हो जाए। ये सुझाव क्रिमिनल ज्यूरिसप्रूडेन्स को भी और पुख्ता करेगा। अदालतों में मुकद्दमों की सुनवाई में तेज़ी आएगी और फैसले भी जल्द आएंगे। अभी आलम ये है कि चूंकि आपराधिक मामलों में कन्विक्शन रेट पांच फीसदी से भी कम है और फैसला आने की मियाद अमुमन 15 साल है एक शातिर अपराधी विधायक या सांसद ही नहीं मंत्री बन कर शान से कानून को अपने अंटे में दबा कर घूमता है।

पूर्व चीफ इलेक्शन कमीश्नर जे एम लिंगदोह ने भी चुनाव सुधार को लेकर सुझाव दिये हैं। इनमें से एक सुझाव लॉ कमीशन के सुझावों से भी मेल खाता है। और वो है प्रपोर्शनल रिप्रेसेन्टेशन का। अभी होता ये है कि फर्स्ट पास्ट द पोस्ट ( एफपीटीपी ) के तहत जिसे ज्यादा वोट मिले वो चुना जाता है। अब भले ही उसे कुल वोट के 25 या 30 फीसदी वोट ही मिले हों। बाकी जनता ( यानि 75 फीसदी जनता ) के वोट ज़ाया हो जाते हैं। प्रपोर्शनल रिप्रेसेन्टेशन में किसी भी उम्मीदवार का कुल वोट का 51 फीसदी वोट पाना ज़रूरी होगा। ऐसा न हो पाए तो सबसे अधिक वोट मिलने वाले दो उम्मीदवारों के बीच दोबारा चुनाव हों ताकि किसी ठोस नतीजे पर पहुंचा जा सके। इससे एक बड़े तबके के वोटरों को नुमाइंदगी मिलेगी और नॉन-सीरियस उम्मीदवारों को भी छांटा जा सकेगा।

ज़ाहिर है जनता को ही सरकार और सिस्टम पर दबाव बनाकर चुनाव सुधार की मुहिम छेड़नी होगी। काहिरा के तहरीर चौक पर लोकतंत्र की लड़ाई चल रही। हिंदुस्तान में अब लोकतंत्र के बायोडेटा को मज़बूत करने का समय आ गया है।