गुरुवार, 10 मार्च 2011

साझा सरकारों के मानदंड बनें



कोलेशन सरकार के मानदंड तय हों

प्रभात शुंगलू
टू जी स्पैक्ट्रम घोटाले की जांच कर रही सीबीआई अब कनिमुड़ी को लेकर पसोपेश में है। ऩए और बदलते हालात में क्या सीबीआई तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करूणानिधि की बेटी को उसके सामने पेश होने के लिए फौरी तौर पर सम्मन भेजे या यूं ही कुछ क्लैरिफिकेशन के लिए बुलवा ले। सीबीआई को 15 मार्च तक सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट सौंपनी है कि आखिर शाहिद बलवा की कंपनी डी बी रिएलटी ने किस तरह 214 करोड़ कलाईनार टीवी ( जिसकी 80 फीसदी पार्टनर कनिमुड़ी और उनकी मां और करूणानिधि की पत्नी दयालु अम्माल हैं ) को ट्रांसफर किये। ये 214 करोड़ भी उसी स्पैक्ट्रम घोटाले का हिस्सा है जिसके चलते पूर्व टेलिकॉम मंत्री और डीएमके सांसद ए राजा फिलहाल जेल में हैं।

पिछले हफ्ते तक कांग्रेस और डीएमके में इस मुद्दे पर तनाव ज़रूर था लेकिन ये कांग्रेस ने भी नहीं सोचा था कि डीएमके सरकार से अलग होने का फैसला कर लेगी। ज़ाहिर है चुनाव से पहले अगर परिवार के किसी सदस्य के घर या ऑफिस में सीबीआई की रेड पड़ती है तो उससे पार्टी की साख और किसी हद तक नतीजों पर भी असर पड़ सकता था। मन मुटाव और उसके बाद मान मुनव्वल का दौर चार तीन दिन चला। फिर कुम्भ मेले में बिछड़े भाइयों की तरह दोनों पार्टियां दोबारा साथ आ गईं और यही नहीं साथ चुनाव लड़ने के लिए डील भी साइन कर ली। कॉंग्रेस को 63 सीट मिल गई जो वो चाहती थी। क्या डीएमके को भी वो मिल गया जिसके लिए उसने ये नाटक रचा। सीबीआई के ताज़ा रवैये को देख कर लगता है करूणानिधि हार कर भी जीत गए। और कांग्रेस के लिए वो मुहावरा सच साबित हुआ कि हींग लगे न फिटकरी रंग चोखे का चोखा।

ये बात सही है कि यूपीए सरकार में डीएमके की साझेदारी से सरकार को शर्मसार होना पड़ा। हालांकि इसकी ज़िम्मेदारी से खुद प्रधानमंत्री भी नहीं बच सकते लेकिन सवाल घूम-फिर कर वहीं पहुंचता है कि क्या साझा सरकारें चलाने का कोई मानदंड होगा या नहीं। क्या ये साझेदारी की डील साइन करने से पहले ही अनकहे शब्दों में तय हो जाता है कि एक हाथ ले, एक हाथ दे। किसी भी बिज़नेस मॉडल का यही मानदंड होता है क्योंकि कोई भी वेन्चर नुकसान में तो नहीं चल सकता। लेकिन क्या साझा सरकारें कोई बिज़नेस वेन्चर है। जिसके नफे-नुकसान में सब की हिस्सेदारी तय है। यानि वो एक दूसरे की कारगुज़ारियों और भ्रष्टाचार या दूसरे अपराधों पर पर्दा डालेंगी। साझा सरकारों की इस व्हीलिंग-डीलिंग में क्या समाज और देश की स्मिता दांव पर नहीं है। क्या कामयाब सरकार चलाने का इकलौता मॉडल यही है।

कांग्रेस ने डीएमके के साथ डील कर के ये तो जता दिया कि डीएमके के बिना वो भी अधूरी है और तमिलनाडु में डीएमके की बैसाखी के बिना पार्टी शून्य है। कांग्रेस ही क्यों इससे पहले की एनडीए सरकार में भी बीजेपी को तमिलनाडु में पैर जमाने के लिए जयललिता की एआईएडीएमके का सहारा लेना पड़ा। जयललिता ने भी एनडीए सरकार को नाकों चने चबवा दिए। उनके खिलाफ भी तब भ्रष्टाचार के कई आरोप थे। जयललिता ही क्यों वाजपेयी सरकार तमाम राज्यों की बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों की ऐसी 24 पार्टियों का कोलेशन थी। आज सोनिया गांधी भले ही फ्रंट फुट पर खेल रहीं हों लेकिन 1996-98 की संयुक्त मोर्चे की सरकार में वो थर्ड अंपायर और मैच रेफरी की भूमिका में थी। कांग्रेस सरकार में नहीं थी मगर मुद्दों पर संयुक्त मोर्चे की सरकार को आउटसाइड सपोर्ट दिया था। फिर एक दिन कांग्रेस के लिए मुद्दा देवेगौड़ा बन गए। फिर क्या था देवेगौड़ा को 11 महीने में ही प्रधानमंत्री की गद्दी छोड़नी पड़ी। और अगले 11 महीने में गुजराल को। कांग्रेस को दोबारा सत्ता में लौटने की कुलबुलाहट शुरू हो गई थी। देश दो साल के भीतर ही दूसरे चुनाव के मुहाने पर आ खड़ा हुआ।

पिछले लगभग 15 सालों की कोलेशन इतिहास का कुल निचोड़ ये है कि दरअसल साझा सरकारें एक ठगी का प्लेटफॉर्म बन कर रह गईं हैं। कभी कोई भ्रष्टाचार करके ठगता है तो कोई सीट की ऐवज़ में चार आने ज़्यादा मांग कर। कोई अपराध कर के बचने के रास्ते ढूंढ़ लेता है तो कोई साझा अपराध में शामिल होकर चुप्पी की खाता है। साझा मंच बना कर और एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम के बल पर भले ही पार्टियां लोगों के बीच वोट मांगे मगर सरकार में आते ही अपनी जेबें भरना और कानून को ठेंगा दिखाना – इन दो सूत्रीय मंत्र के इर्द-गिर्द ही ये अपना न्यूनतम साझा कार्यक्रम बुन लेते हैं। सही मायनों में न्यूनतम कुछ नहीं बचता। बस भ्रष्टाचार साझा हो जाता है।

दूसरी पार्टियों के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का दो ही मकसद होता है - होने वाले चुनावी नुकसान को कम किया जा सके या जीत को और पक्का किया जा सके। जीत का मतलब सत्ता। और सत्ता का मतलब मनमानी हुकूमत। यानि मूल्यों के साथ कॉम्प्रोमाइज़। अब ये बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी ज़ुबान पर कैसे लाते इसलिए कोलेशन के सर ठीकरा फोड़ कर भ्रष्टाचार के सवालों से कन्नी काट गए। और सत्ता में बने रहने का नया बहाना ढूंढ़ लिया।

डीएमके प्रकरण के दौरान सोनिया गांधी ने कहा था – हम सीट के लिए लालायित नहीं। डीएमके के रवैये ने कांग्रेस पार्टी की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाई है। जिस आम आदमी ने मूल्यों पर आधारित पारदर्शी, करप्शन-फ्री और न्यायसंगत सरकार चलाने के लिए यूपीए के मंच को चुना उसकी प्रतिष्ठा को क्या हल्के में लिया जा सकता है।

डीएमके से रिश्ते तोड़ने का एक अवसर कांग्रेस के पास था। भले ही सरकार क्यों न दांव पर होती। लेकिन सीट शेयरिंग की डील साइन कर कांग्रेस ने जता दिया कि प्रतिष्ठा से पहले अस्तित्व की लड़ाई भी तो लड़नी है। जब अस्तित्व ही खतरे में होगा तो किसकी प्रतिष्ठा की बात करके किसे बर्गलाया जा सकेगा। 

गुरुवार, 3 मार्च 2011

दूसरी आज़ादी का समय


दूसरी आज़ादी का समय 

प्रभात शुंगलू

लोकशाही के साथ इससे बड़ा मज़ाक नहीं हो सकता कि भ्रष्टाचार के आरोप में चार्जशीटेड एक उच्च अधिकारी को भ्रष्टाचार निरोधक कमीशन की बागडोर थमा दी जाए। लेकिन विवादित पूर्व सीवीसी पी जे थॉमस को कुछ ऐसी ही परिश्थितियों में नियुक्त किया गया और यही नहीं जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो केन्द्र सरकार थॉमस की ही पैरवी करती दिखी। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट नें सीवीसी के पद पर थॉमस की नियुक्ति को रद्द करार देकर भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में जनता की आस्था को ज़िंदा रखा है। 

ब्योरोक्रेसी में भ्रष्टाचार को लेकर सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला एक नज़ीर बन सकता है। लेकिन भ्रष्टाचार के कैंसर को खत्म करने की जंग यहां खत्म नहीं बल्कि शुरू होती है। अब एक और मिसाल लीजिए। सालों से लटके उच्च पदों पर व्याप्त भ्रष्टाचार निरोधक लोकपाल बिल को भी वहीं राजनेता और अधिकारी वर्ग ड्राफ्ट कर रहा जिनपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। सरकार की सिफारिश मानें तो जिसकी लाठी उसकी भैंस के तर्ज पर लोकपाल और राज्यों में लोकआयुक्तों की नियुक्ति भी राजनेता ही करेंगे। लोकतंत्र के साथ एक और भद्दा मज़ाक।

इसलिए लोकपाल बिल को लेकर मशहूर समाजसेवी अन्ना हज़ारे ने 5 अप्रैल से दिल्ली के जंतर मंतर पर बेमियादी भूख हड़ताल करने की ठान ली है। ये स्वतंत्रता आंदोलन की दूसरी लड़ाई है। मैं शहादत के लिए भी तैयार हूं। ये कहते हुए अन्ना ने देशवासियों से उनकी इस मुहिम में साथ देने की अपील की।

अन्ना हज़ारे, अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी और स्वामी अग्निवेश ने सिविल सोसाइटी की मदद से एक वैकल्पिक लोकपाल बिल बनाया है। इसे उन्होने जन लोकपाल बिल का नाम दिया है। इसमें उन्होने लोकपाल संस्था को स्वतंत्र संस्था के रूप में बनाए जाने की सिफारिश की है। जिसमें सीबीआई और सीवीसी के अधिकारों को भी लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में लाए जाने की सिफारिश है। ये संस्था एक समय सीमा के भीतर भ्रष्टाचार के मामले की जांच पूरी करेगी और उसपर सुनवाई कर के दोषियों को सज़ा देगी। इस तरह के कई महत्वपूर्ण संशोधनों के साथ इस बिल की रूपरेखा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भेजी जा चुकी है। लेकिन प्रधानमंत्री की चुप्पी अन्ना को महात्मा गांधी की तर्ज पर जन आंदोलन छेड़ने को मजबूर कर रही।

1937 की पहली अंतरिम सरकार में कॉग्रेसियों के भ्रष्टाचार से गांधी इतना उकता गए कि उन्हे कहना पड़ा कि मेरा बस चले तो मैं पार्टी को हमेशा के लिए दफना दूं ताकि न रहे बांस न बजे बांसुरी। आज़ादी के बाद भी भ्रष्टाचार का ये सिलसिला रूका नहीं। सरकारी तंत्र को चुस्त दुरूस्त बनाने के लिए गोरवाला कमेटी का 1950 में गठन हुआ। सरकारी भ्रष्टाचार को लेकर उन्होने जो अपनी रिपोर्ट में कहा वो दिलचस्प है। नेहरू के कुछ साथी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। और ये सबको पता है। इतना ही नहीं बल्कि एक अफसर ने पूछे जाने पर ये भी बताया कि सरकार ऐसे भ्रष्ट मंत्रियों को बचाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती। साठ के दशक में संथानम कमेटी ने लगभग ऐलान कर दिया कि लोकतंत्र की तरह भ्रष्टाचार भी इस देश में अपनी जड़ें जमा चुका है। संथानम कमेटी ने कहा अब ये आम धारणा बन चुकी है कि मंत्रियों से सत्यनिष्ठा और ईमानदारी की उम्मीद रखना छलावा है। पिछले सोलह सालों से जो मंत्री बने हुए हैं उन्होने भ्रष्टाचार के रास्ते अपने और अपने परिवार के लिए सारी सुख सुविधाओं और अच्छी नौकरियों का इंतज़ाम कर लिया है। जो लोग पब्लिक लाइफ में शुचिता की बात करते हैं उन्हे ऐसे मंत्री मुंह चिढ़ाते हैं।

जितने ठोस इन कमेटियों के सुझाव होते उतने ही पुरज़ोर तरीके से भ्रष्टाचार कुलांचे भरता किसी न किसी भी नेता, मंत्री या मुख्यमंत्री के पिटारे से बाहर निकलता और लोकतांत्रिक व्यवस्था को मुंह चिढ़ाता। इसलिए कृष्णा मेनन का जीप स्कैंडल हो या पंजाब के पहले मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप। टीटी कृष्णमाचारी, बोफोर्स, फेयरफैक्स, जेएमएम घूस कांड, हवाला कांड, जयललिता, लालू यादव और सुखराम के रास्ते ये फिलहाल राडिया, राजा, रेड्डी ब्रदर्स और येदुरप्पा पर आकर थमा नहीं है। बदलें है तो बस चेहरे और कॉर्पोरेट और राजनीति की अंदरूनी कैमेस्ट्री। और भ्रष्टाचार की राशि में कई सिफर और जुड़ गए हैं।

लेकिन वो मिलियन डॉलर सवाल जस का तस खड़ा है। भ्रष्टाचार पर काबू कैसे पाया जाए। अब तो सिस्टम भी सौगात में भ्रष्ट सीवीसी ही देता है। क्या भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए बने कानून अपनी धार खो चुके हैं। या तो कानून इतने लुंज-पुंज हैं कि नेताओं और भ्रष्ट अफसरों को उसका दुरूउपयोग करना आता है। और उससे बच निकलने के नुस्खे भी। इस देश में भ्रष्टाचार के आरोप में आम आदमी हवालात पहुंचता है और नेता संसद। क्योंकि एक घूसखोर नेता के सामने कानून भी असहाय दिखता है। एक भ्रष्ट जज के खिलाफ भी बुनियादी कानूनी कार्रवाई तक में दर्जनों बाधा है। इसलिए लोकपाल बिल पर सरकार इतने सालों से कुंडली मार कर बैठी है। क्योंकि अगर लोकपाल बिल वैसा बनाया गया जैसा जनता चाहती है तब भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों को कानून की बारीकियों के साथ साथ जेल मैन्यूअल भी रटना पड़ सकता है।

लेकिन सवाल ये उठता है कि जिस फ्रंट पर गांधी कामयाब नहीं हुए क्या अन्ना हज़ारे होंगे। क्या ये देश भ्रष्टाचार को लेकर ज़ीरो टॉलरेंस ज़ोन बनेगा। अगर एक अरब के इस देश में एक फीसदी युवा भी अन्ना की मुहिम के साथ जुड़ जाते हैं तो नतीजा अच्छा ही निकलेगा। ये तो पहला पड़ाव होगा। इस उम्मीद में कि ये जीत दूसरे पुरज़ोर कानून बनाए जाने के लिए रास्ता खोलेगी। इस सपने को पूरा करने की ज़िम्मेदारी जितनी अन्ना हज़ारे की है उतनी ही शायद समाज के हर उस शख्स की जो भ्रष्ट व्यवस्था के मकड़जाल से निकलकर खुली हवा में सांस लेना चाहता है। जनता की जीत ही दूसरी आज़ादी के जश्न का समय होगा।