कोलेशन सरकार के मानदंड तय हों
प्रभात शुंगलू
टू जी स्पैक्ट्रम घोटाले की जांच कर रही सीबीआई अब कनिमुड़ी को लेकर पसोपेश में है। ऩए और बदलते हालात में क्या सीबीआई तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करूणानिधि की बेटी को उसके सामने पेश होने के लिए फौरी तौर पर सम्मन भेजे या यूं ही कुछ क्लैरिफिकेशन के लिए बुलवा ले। सीबीआई को 15 मार्च तक सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट सौंपनी है कि आखिर शाहिद बलवा की कंपनी डी बी रिएलटी ने किस तरह 214 करोड़ कलाईनार टीवी ( जिसकी 80 फीसदी पार्टनर कनिमुड़ी और उनकी मां और करूणानिधि की पत्नी दयालु अम्माल हैं ) को ट्रांसफर किये। ये 214 करोड़ भी उसी स्पैक्ट्रम घोटाले का हिस्सा है जिसके चलते पूर्व टेलिकॉम मंत्री और डीएमके सांसद ए राजा फिलहाल जेल में हैं।
पिछले हफ्ते तक कांग्रेस और डीएमके में इस मुद्दे पर तनाव ज़रूर था लेकिन ये कांग्रेस ने भी नहीं सोचा था कि डीएमके सरकार से अलग होने का फैसला कर लेगी। ज़ाहिर है चुनाव से पहले अगर परिवार के किसी सदस्य के घर या ऑफिस में सीबीआई की रेड पड़ती है तो उससे पार्टी की साख और किसी हद तक नतीजों पर भी असर पड़ सकता था। मन मुटाव और उसके बाद मान मुनव्वल का दौर चार तीन दिन चला। फिर कुम्भ मेले में बिछड़े भाइयों की तरह दोनों पार्टियां दोबारा साथ आ गईं और यही नहीं साथ चुनाव लड़ने के लिए डील भी साइन कर ली। कॉंग्रेस को 63 सीट मिल गई जो वो चाहती थी। क्या डीएमके को भी वो मिल गया जिसके लिए उसने ये नाटक रचा। सीबीआई के ताज़ा रवैये को देख कर लगता है करूणानिधि हार कर भी जीत गए। और कांग्रेस के लिए वो मुहावरा सच साबित हुआ कि हींग लगे न फिटकरी रंग चोखे का चोखा।
ये बात सही है कि यूपीए सरकार में डीएमके की साझेदारी से सरकार को शर्मसार होना पड़ा। हालांकि इसकी ज़िम्मेदारी से खुद प्रधानमंत्री भी नहीं बच सकते लेकिन सवाल घूम-फिर कर वहीं पहुंचता है कि क्या साझा सरकारें चलाने का कोई मानदंड होगा या नहीं। क्या ये साझेदारी की डील साइन करने से पहले ही अनकहे शब्दों में तय हो जाता है कि एक हाथ ले, एक हाथ दे। किसी भी बिज़नेस मॉडल का यही मानदंड होता है क्योंकि कोई भी वेन्चर नुकसान में तो नहीं चल सकता। लेकिन क्या साझा सरकारें कोई बिज़नेस वेन्चर है। जिसके नफे-नुकसान में सब की हिस्सेदारी तय है। यानि वो एक दूसरे की कारगुज़ारियों और भ्रष्टाचार या दूसरे अपराधों पर पर्दा डालेंगी। साझा सरकारों की इस व्हीलिंग-डीलिंग में क्या समाज और देश की स्मिता दांव पर नहीं है। क्या कामयाब सरकार चलाने का इकलौता मॉडल यही है।
कांग्रेस ने डीएमके के साथ डील कर के ये तो जता दिया कि डीएमके के बिना वो भी अधूरी है और तमिलनाडु में डीएमके की बैसाखी के बिना पार्टी शून्य है। कांग्रेस ही क्यों इससे पहले की एनडीए सरकार में भी बीजेपी को तमिलनाडु में पैर जमाने के लिए जयललिता की एआईएडीएमके का सहारा लेना पड़ा। जयललिता ने भी एनडीए सरकार को नाकों चने चबवा दिए। उनके खिलाफ भी तब भ्रष्टाचार के कई आरोप थे। जयललिता ही क्यों वाजपेयी सरकार तमाम राज्यों की बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों की ऐसी 24 पार्टियों का कोलेशन थी। आज सोनिया गांधी भले ही फ्रंट फुट पर खेल रहीं हों लेकिन 1996-98 की संयुक्त मोर्चे की सरकार में वो थर्ड अंपायर और मैच रेफरी की भूमिका में थी। कांग्रेस सरकार में नहीं थी मगर मुद्दों पर संयुक्त मोर्चे की सरकार को आउटसाइड सपोर्ट दिया था। फिर एक दिन कांग्रेस के लिए मुद्दा देवेगौड़ा बन गए। फिर क्या था देवेगौड़ा को 11 महीने में ही प्रधानमंत्री की गद्दी छोड़नी पड़ी। और अगले 11 महीने में गुजराल को। कांग्रेस को दोबारा सत्ता में लौटने की कुलबुलाहट शुरू हो गई थी। देश दो साल के भीतर ही दूसरे चुनाव के मुहाने पर आ खड़ा हुआ।
पिछले लगभग 15 सालों की कोलेशन इतिहास का कुल निचोड़ ये है कि दरअसल साझा सरकारें एक ठगी का प्लेटफॉर्म बन कर रह गईं हैं। कभी कोई भ्रष्टाचार करके ठगता है तो कोई सीट की ऐवज़ में चार आने ज़्यादा मांग कर। कोई अपराध कर के बचने के रास्ते ढूंढ़ लेता है तो कोई साझा अपराध में शामिल होकर चुप्पी की खाता है। साझा मंच बना कर और एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम के बल पर भले ही पार्टियां लोगों के बीच वोट मांगे मगर सरकार में आते ही अपनी जेबें भरना और कानून को ठेंगा दिखाना – इन दो सूत्रीय मंत्र के इर्द-गिर्द ही ये अपना न्यूनतम साझा कार्यक्रम बुन लेते हैं। सही मायनों में न्यूनतम कुछ नहीं बचता। बस भ्रष्टाचार साझा हो जाता है।
दूसरी पार्टियों के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का दो ही मकसद होता है - होने वाले चुनावी नुकसान को कम किया जा सके या जीत को और पक्का किया जा सके। जीत का मतलब सत्ता। और सत्ता का मतलब मनमानी हुकूमत। यानि मूल्यों के साथ कॉम्प्रोमाइज़। अब ये बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी ज़ुबान पर कैसे लाते इसलिए कोलेशन के सर ठीकरा फोड़ कर भ्रष्टाचार के सवालों से कन्नी काट गए। और सत्ता में बने रहने का नया बहाना ढूंढ़ लिया।
डीएमके प्रकरण के दौरान सोनिया गांधी ने कहा था – ‘हम सीट के लिए लालायित नहीं। डीएमके के रवैये ने कांग्रेस पार्टी की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाई है’। जिस आम आदमी ने मूल्यों पर आधारित पारदर्शी, करप्शन-फ्री और न्यायसंगत सरकार चलाने के लिए यूपीए के मंच को चुना उसकी प्रतिष्ठा को क्या हल्के में लिया जा सकता है।
डीएमके से रिश्ते तोड़ने का एक अवसर कांग्रेस के पास था। भले ही सरकार क्यों न दांव पर होती। लेकिन सीट शेयरिंग की डील साइन कर कांग्रेस ने जता दिया कि प्रतिष्ठा से पहले अस्तित्व की लड़ाई भी तो लड़नी है। जब अस्तित्व ही खतरे में होगा तो किसकी प्रतिष्ठा की बात करके किसे बर्गलाया जा सकेगा।
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