गुरुवार, 3 मार्च 2011

दूसरी आज़ादी का समय


दूसरी आज़ादी का समय 

प्रभात शुंगलू

लोकशाही के साथ इससे बड़ा मज़ाक नहीं हो सकता कि भ्रष्टाचार के आरोप में चार्जशीटेड एक उच्च अधिकारी को भ्रष्टाचार निरोधक कमीशन की बागडोर थमा दी जाए। लेकिन विवादित पूर्व सीवीसी पी जे थॉमस को कुछ ऐसी ही परिश्थितियों में नियुक्त किया गया और यही नहीं जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो केन्द्र सरकार थॉमस की ही पैरवी करती दिखी। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट नें सीवीसी के पद पर थॉमस की नियुक्ति को रद्द करार देकर भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में जनता की आस्था को ज़िंदा रखा है। 

ब्योरोक्रेसी में भ्रष्टाचार को लेकर सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला एक नज़ीर बन सकता है। लेकिन भ्रष्टाचार के कैंसर को खत्म करने की जंग यहां खत्म नहीं बल्कि शुरू होती है। अब एक और मिसाल लीजिए। सालों से लटके उच्च पदों पर व्याप्त भ्रष्टाचार निरोधक लोकपाल बिल को भी वहीं राजनेता और अधिकारी वर्ग ड्राफ्ट कर रहा जिनपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। सरकार की सिफारिश मानें तो जिसकी लाठी उसकी भैंस के तर्ज पर लोकपाल और राज्यों में लोकआयुक्तों की नियुक्ति भी राजनेता ही करेंगे। लोकतंत्र के साथ एक और भद्दा मज़ाक।

इसलिए लोकपाल बिल को लेकर मशहूर समाजसेवी अन्ना हज़ारे ने 5 अप्रैल से दिल्ली के जंतर मंतर पर बेमियादी भूख हड़ताल करने की ठान ली है। ये स्वतंत्रता आंदोलन की दूसरी लड़ाई है। मैं शहादत के लिए भी तैयार हूं। ये कहते हुए अन्ना ने देशवासियों से उनकी इस मुहिम में साथ देने की अपील की।

अन्ना हज़ारे, अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी और स्वामी अग्निवेश ने सिविल सोसाइटी की मदद से एक वैकल्पिक लोकपाल बिल बनाया है। इसे उन्होने जन लोकपाल बिल का नाम दिया है। इसमें उन्होने लोकपाल संस्था को स्वतंत्र संस्था के रूप में बनाए जाने की सिफारिश की है। जिसमें सीबीआई और सीवीसी के अधिकारों को भी लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में लाए जाने की सिफारिश है। ये संस्था एक समय सीमा के भीतर भ्रष्टाचार के मामले की जांच पूरी करेगी और उसपर सुनवाई कर के दोषियों को सज़ा देगी। इस तरह के कई महत्वपूर्ण संशोधनों के साथ इस बिल की रूपरेखा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भेजी जा चुकी है। लेकिन प्रधानमंत्री की चुप्पी अन्ना को महात्मा गांधी की तर्ज पर जन आंदोलन छेड़ने को मजबूर कर रही।

1937 की पहली अंतरिम सरकार में कॉग्रेसियों के भ्रष्टाचार से गांधी इतना उकता गए कि उन्हे कहना पड़ा कि मेरा बस चले तो मैं पार्टी को हमेशा के लिए दफना दूं ताकि न रहे बांस न बजे बांसुरी। आज़ादी के बाद भी भ्रष्टाचार का ये सिलसिला रूका नहीं। सरकारी तंत्र को चुस्त दुरूस्त बनाने के लिए गोरवाला कमेटी का 1950 में गठन हुआ। सरकारी भ्रष्टाचार को लेकर उन्होने जो अपनी रिपोर्ट में कहा वो दिलचस्प है। नेहरू के कुछ साथी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। और ये सबको पता है। इतना ही नहीं बल्कि एक अफसर ने पूछे जाने पर ये भी बताया कि सरकार ऐसे भ्रष्ट मंत्रियों को बचाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती। साठ के दशक में संथानम कमेटी ने लगभग ऐलान कर दिया कि लोकतंत्र की तरह भ्रष्टाचार भी इस देश में अपनी जड़ें जमा चुका है। संथानम कमेटी ने कहा अब ये आम धारणा बन चुकी है कि मंत्रियों से सत्यनिष्ठा और ईमानदारी की उम्मीद रखना छलावा है। पिछले सोलह सालों से जो मंत्री बने हुए हैं उन्होने भ्रष्टाचार के रास्ते अपने और अपने परिवार के लिए सारी सुख सुविधाओं और अच्छी नौकरियों का इंतज़ाम कर लिया है। जो लोग पब्लिक लाइफ में शुचिता की बात करते हैं उन्हे ऐसे मंत्री मुंह चिढ़ाते हैं।

जितने ठोस इन कमेटियों के सुझाव होते उतने ही पुरज़ोर तरीके से भ्रष्टाचार कुलांचे भरता किसी न किसी भी नेता, मंत्री या मुख्यमंत्री के पिटारे से बाहर निकलता और लोकतांत्रिक व्यवस्था को मुंह चिढ़ाता। इसलिए कृष्णा मेनन का जीप स्कैंडल हो या पंजाब के पहले मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप। टीटी कृष्णमाचारी, बोफोर्स, फेयरफैक्स, जेएमएम घूस कांड, हवाला कांड, जयललिता, लालू यादव और सुखराम के रास्ते ये फिलहाल राडिया, राजा, रेड्डी ब्रदर्स और येदुरप्पा पर आकर थमा नहीं है। बदलें है तो बस चेहरे और कॉर्पोरेट और राजनीति की अंदरूनी कैमेस्ट्री। और भ्रष्टाचार की राशि में कई सिफर और जुड़ गए हैं।

लेकिन वो मिलियन डॉलर सवाल जस का तस खड़ा है। भ्रष्टाचार पर काबू कैसे पाया जाए। अब तो सिस्टम भी सौगात में भ्रष्ट सीवीसी ही देता है। क्या भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए बने कानून अपनी धार खो चुके हैं। या तो कानून इतने लुंज-पुंज हैं कि नेताओं और भ्रष्ट अफसरों को उसका दुरूउपयोग करना आता है। और उससे बच निकलने के नुस्खे भी। इस देश में भ्रष्टाचार के आरोप में आम आदमी हवालात पहुंचता है और नेता संसद। क्योंकि एक घूसखोर नेता के सामने कानून भी असहाय दिखता है। एक भ्रष्ट जज के खिलाफ भी बुनियादी कानूनी कार्रवाई तक में दर्जनों बाधा है। इसलिए लोकपाल बिल पर सरकार इतने सालों से कुंडली मार कर बैठी है। क्योंकि अगर लोकपाल बिल वैसा बनाया गया जैसा जनता चाहती है तब भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों को कानून की बारीकियों के साथ साथ जेल मैन्यूअल भी रटना पड़ सकता है।

लेकिन सवाल ये उठता है कि जिस फ्रंट पर गांधी कामयाब नहीं हुए क्या अन्ना हज़ारे होंगे। क्या ये देश भ्रष्टाचार को लेकर ज़ीरो टॉलरेंस ज़ोन बनेगा। अगर एक अरब के इस देश में एक फीसदी युवा भी अन्ना की मुहिम के साथ जुड़ जाते हैं तो नतीजा अच्छा ही निकलेगा। ये तो पहला पड़ाव होगा। इस उम्मीद में कि ये जीत दूसरे पुरज़ोर कानून बनाए जाने के लिए रास्ता खोलेगी। इस सपने को पूरा करने की ज़िम्मेदारी जितनी अन्ना हज़ारे की है उतनी ही शायद समाज के हर उस शख्स की जो भ्रष्ट व्यवस्था के मकड़जाल से निकलकर खुली हवा में सांस लेना चाहता है। जनता की जीत ही दूसरी आज़ादी के जश्न का समय होगा।

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