मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

लोकतंत्र का बायोडेटा


क्या यही है लोकतंत्र का बायोडेटा

प्रभात शुंगलू

उस दिन सीवीसी यानि केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त पी जे थॉमस ने सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस की बेंच के सामने वो सवाल उठा दिया जिसका जवाब पिछली कई सरकारें ढूंढ़ने से कतरा रही हैं। सीवीसी थॉमस का सवाल साफ था – इस देश में अगर आपराधिक छवि वाले नेता, मर्डर के केस में लिप्त नेता सांसद और मंत्री बन सकते हैं तो वो सीवीसी क्यों नहीं बने रह सकते। उनके वकील के के वेनुगोपाल नें बाकायदा आंकड़े पेश किये। कहा मौजूदा संसद में भी 28 फीसदी यानि 543 में से 153 नेता ऐसे हैं जिनके खिलाफ देश की विभिन्न अदालतों में आपराधिक मुकद्दमें चल रहे हैं और इनमें से 54 सासंदों के खिलाफ तो हत्या के मुकद्दमे चल रहे। कुल मिलाकर पिछली लोकसभा में आपराधिक छवि वाले सांसदों में 17 फीसदी का इज़ाफा।

थॉमस पर आरोप है कि नब्बे के दशक में केरल में खाद्द सचिव के तौर पर उन्होने अंतर्राष्ट्रीय कीमत से 13 डॉलर ज्यादा दाम पर सिंगापुर की एक कंपनी से पामोलिन तेल खरीदा जिससे राज्य सरकार को 2.32 करोड़ रूपये का घाटा हुआ। इस मामले में अदालत में दायर सीबीआई चार्जशीट में उस समय केरल के मुख्यमंत्री के करूणाकरण से लेकर सरकार के दूसरे अफसरों के भी नाम हैं। आज यही चार्जशीट सीवीसी थॉमस के गले की हड्डी बनी हुई है। अब केन्द्र सरकार भी कटघरे में है कि ये सब जानते हुए भी प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिती ने थॉमस की नियुक्ति कैसे की। और दूसरी महत्वपूर्ण बात ये कि इस समिति के सामनें थॉमस के बायोडेटा से इस चार्जशीट का ज़िक्र गायब क्यों था। सुप्रीम कोर्ट तो दलीलों के मद्देनज़र फैसला सुनाएगा कि ऐसा अधिकारी जिसके खुद के दामन पर दाग हो उसे सीवीसी नियुक्त किया जाना सही था या गलत। लेकिन उस सवाल का क्या जो थॉमस ने सुप्रीम कोर्ट से किया।

थॉमस ने तो वो तर्क अपने बचाव में दिये। सवाल थॉमस की साख का नहीं। सवाल उस प्रजातंत्र की साख का है जिसमें हत्या जैसे जघन्य अपराध भी एक नेता के बायोडेटा का हाई प्वाइंट माना जाता है। लगभग सभी पार्टियों में जिताऊ कैन्डीडेट की इतनी कमी है कि खाऊ-कमाऊ और आपराधिक रिकॉर्ड वाले व्यक्तियों को ही टिकट थमा कर पार्टियां धन्य हो जाती हैं।

पिछले सालों में चुनाव सुधार की बयार ज़रूर चली। आपराधिक मामलों में दो साल से ज़्यादा सज़ा पाने वाले अब चुनाव नहीं लड़ सकते हैं। अब चुनावी हलफनामें में नेताओं को अपने और परिवार की चल, अचल संपत्ति का भी ब्योरा देना होता है। लेकिन उस हलफनामें की असलियत कौन जांचेगा। इसलिए होता यही है कि अकूत संपत्ति के मालिक होने के बावजूद नेताओं के चुनावी हलफनामें वोटर की अस्मिता का मज़ाक बनकर रह जाते हैं। अब कोई कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी एस येदुरप्पा से पूछेगा कि 2008 में जब वो मुख्यमंत्री बने और हाल के उनकी चल अचल संपत्ति के ब्योरे में इतना अंतर कैसे। इन तीन सालों में एक किलो सोना और कैसे बढ़ गया। उनके बैंक के खाते में 20 लाख रूपये ज्यादा कैसे आ गये। एक विधायक को अंबानी की कंपनी के सीईओ की तन्ख्वाह मिलती है क्या। सारे नियम कानून को ताक पर रख कर उन्होने अपने दो बेटों, जिनमें एक एस राघवेन्द्र सांसद है, के नाम ज़मीने लिखवा दीं जिसकी कीमत 500 करोड़ रूपये आंकी गई है। लेकिन हकीकत यही है कि येदुरप्पा और उनकी पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी ये कहते घूम रहे कि दाग अच्छे हैं।

इस लोकतांत्रिक व्यवस्था को जहां एक तरफ येदुरप्पा, कलमाडी और ए राजा जैसे घोटाला मंत्री दीमक की तरह चाट रहे वहीं दूसरी तरफ बाहुबली नेता भी फल फूल रहे। एक एनजीओ इलेक्शन वॉच के मुताबिक मौजूदा पन्द्रहवीं लोकसभा में आपराधिक छवि वाले सबसे ज्यादा सांसद – 42 सांसद - बीजेपी से हैं। इनमें से 19 सासंदों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। लेकिन कांग्रेस भी पीछे नहीं। ऐसे कांग्रेसी सांसदों की संख्या 41 है। जिनमें 12 के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले हैं। ऐसे कितनी ही पार्टियों के सांसद पन्द्रहवीं लोकसभा में बैठकर जनता को ही कानून का पाठ पढ़ा रहीं। अपराध और बाहुबल के दम पर राज करने की मानसिकता के पीछे कानून के बलात्कार की हवस ही छुपी है।

मतलब साफ है कि कॉस्मेटिक और दंतहीन बदलाव लाने से बात नहीं बनेगी। चुनाव सुधार व्यापक तौर पर हों इसके लिए पिछले सालों में चुनाव आयोग से लेकर लॉ कमीशन ऩे सरकार के पास सुझावों की लड़ी लगा दी है। एक महत्वपूर्ण सुझाव ये है कि जिस किसी के खिलाफ कोर्ट में आपराधिक मुकद्मा चल रहा हो उसे इलेक्शन न लड़ने दिया जाए जबतक कि वो उस मामले में बरी न हो जाए। ये सुझाव क्रिमिनल ज्यूरिसप्रूडेन्स को भी और पुख्ता करेगा। अदालतों में मुकद्दमों की सुनवाई में तेज़ी आएगी और फैसले भी जल्द आएंगे। अभी आलम ये है कि चूंकि आपराधिक मामलों में कन्विक्शन रेट पांच फीसदी से भी कम है और फैसला आने की मियाद अमुमन 15 साल है एक शातिर अपराधी विधायक या सांसद ही नहीं मंत्री बन कर शान से कानून को अपने अंटे में दबा कर घूमता है।

पूर्व चीफ इलेक्शन कमीश्नर जे एम लिंगदोह ने भी चुनाव सुधार को लेकर सुझाव दिये हैं। इनमें से एक सुझाव लॉ कमीशन के सुझावों से भी मेल खाता है। और वो है प्रपोर्शनल रिप्रेसेन्टेशन का। अभी होता ये है कि फर्स्ट पास्ट द पोस्ट ( एफपीटीपी ) के तहत जिसे ज्यादा वोट मिले वो चुना जाता है। अब भले ही उसे कुल वोट के 25 या 30 फीसदी वोट ही मिले हों। बाकी जनता ( यानि 75 फीसदी जनता ) के वोट ज़ाया हो जाते हैं। प्रपोर्शनल रिप्रेसेन्टेशन में किसी भी उम्मीदवार का कुल वोट का 51 फीसदी वोट पाना ज़रूरी होगा। ऐसा न हो पाए तो सबसे अधिक वोट मिलने वाले दो उम्मीदवारों के बीच दोबारा चुनाव हों ताकि किसी ठोस नतीजे पर पहुंचा जा सके। इससे एक बड़े तबके के वोटरों को नुमाइंदगी मिलेगी और नॉन-सीरियस उम्मीदवारों को भी छांटा जा सकेगा।

ज़ाहिर है जनता को ही सरकार और सिस्टम पर दबाव बनाकर चुनाव सुधार की मुहिम छेड़नी होगी। काहिरा के तहरीर चौक पर लोकतंत्र की लड़ाई चल रही। हिंदुस्तान में अब लोकतंत्र के बायोडेटा को मज़बूत करने का समय आ गया है।

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